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आधुनिक परिवेशिय में हिंदी का योगदान : डॉ. रागिनी दुबे

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आधुनिक प्रवेश में जहां मूल्यों का ह्रास अपनी पराकाष्ठा पर है पाश्चात्य भाषाओं का प्रकोप कोरोना की तरह फैल गया है वही हिंदी साहित्य सामाजिक राजनीतिक मूल्यों के विकास में वृद्धि की ओर अग्रसर है आवश्यकता है तो बस हिंदी को आगे बढ़ाने की 14 सितंबर 1953 को पहली बार हिंदी दिवस मनाया गया इस वर्ष हम 69वां हिंदी दिवस मना रहे हैं केवल एक दिवस के रूप में हिंदी को याद कर लेने से हिंदी को गौरव प्राप्त नहीं होगा हिंदी को समझने के लिए हमें उसके साहित्य में समाहित है जो मानवीय मूल्य हैं उनको खोजना होगा और आने वाली पीढ़ी में प्रेषित करना होगा इसमें महत्वपूर्ण भूमिका प्रशासन की है कि वे हर वर्ग में विद्यार्थियों के लिए हिंदी विषय को अनिवार्य कर दें नई शिक्षा नीति के अंतर्गत ऐसा हुआ भी है । देखते हैं धरातल पर इस पर क्या असर होता है।

हिंदी साहित्य के गर्भ में सूर कबीर तुलसी दिनकर जैसे अनेक मोती उत्पन्न हुए हैं जिन्होंने मानवीय मूल्यों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है आधुनिक परिवेश में सत्य अहिंसा परोपकार आदि मूल्यों का ह्रास पराकाष्ठा की ओर बढ़ रहा है हिंदी साहित्य इस परिवेश में अमृततुल्य है आइए आज हम आपको इस अमृत के बिंदुओं से अवगत करवाते हैं

सत्य को प्रतिपादित करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदे सांच है ताके हिरदे आप।।

आज जहां संपूर्ण समाज अराजकता सांप्रदायिकता को झेल रहा है वहीं लोकनायक तुलसीदास जी कहते हैं कि हमें जीव मात्र पर दया करनी चाहिए दया ही सभी धर्मों का मूल है वह कहते हैं कि_दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया ना छोड़िए जब लग घट में प्राण।।

परोपकार रूपी मोती को पल्लवित करते हुए रहीम दास जी कहते हैं कि

तरुवर फल नहिं खात है सरवर पियत न पान । कहि रहीम पर काज हित संपति संचय सुजान।।

राजा की गुणों का बखान करते हुए तुलसीदास ने कहा है कि राजा को केवल उतना ही कर लेना चाहिए जितना सूर्य समुद्र से भाप के रूप में जल ग्रहण करता है वे कहते हैं कि

बरसत हर्षद लोग सब करस त लखे न कोय।

तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु सो होय।।

आधुनिक परिवेश में मित्रता जैसा मानवीय मूल्य आज की पीढ़ी में लुप्त होता जा रहा है बिना स्वार्थ के कोई किसी का मित्र नहीं तुलसीदास जी मित्र मित्रता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जो न मित्र दुख होहिं दुखारी।

तिन्हि बिलोकत पातक भारी।।

दिनकर जी कहते हैं कि , मित्रता बड़ा अनमोल। रतन कब से ताल सकता है धन।।

हिंदी के सानिध्य में जो भी रहता है उसमें संस्कार स्वत ही उत्पन्न हो जाते हैं आधुनिक परिवेश में हिंदी को वह स्थान तो नहीं मिला जो मिलना चाहिए परंतु हिंदी की विकास यात्रा शने शने आगे बढ़ रही है यदि हमें अपनी संस्कृति को जिंदा रखना है संस्कारों को जीना है तथा आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना है तो हिंदी को आगे बढ़ाना होगा हर विभाग में हिंदी का वर्चस्व हो इसके लिए हमें अंग्रेजी की दास्तां छोड़कर अपने सभी कार्य हिंदी में करने होंगे सरकारी काम का जो बैंक के दस्तावेज हिंदी में ही बने होंगे एक एक व्यक्ति का प्रयास पूरे देश को हिंदी में कर देगा। आज भी हिंदी साहित्य के गर्भ में मानवीय मूल्य पल रहे हैं आवश्यकता है तो बस उनको आत्मसात करने की आने वाली पीढ़ियों को हिंदी की तरफ आकर्षित करने की जिससे मानवीय मूल्यों का पूरा विकास हो सके और हमारा समाज हमारा भारतविश्व गुरु बनने की ओर अग्रसर हो सके।

हिंदी हमारी मां है और मां के आशीर्वाद के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।

भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते हैं कि, निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल।।

 मेरी नजर में हिंदी,

मेरा स्वाभिमान है हिंदी मेरा अभिमान है हिंदी।

आदितीय ,अनोखी और अनुपमा है हिंदी।।

 (-डॉक्टर रागिनी दुबे मोतीगंज भरथना)

 

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